
यदि आप देर रात तक टीवी या कंप्यूटर के सामने बैठे रहते हैं तो ज़रा सावधान हो जाएं, ऐसे में आपके अवसाद में जाने की आशंका काफी बढ़ जाती है।
यदि आप देर रात तक टीवी या कंप्यूटर के सामने बैठे रहते हैं और इन्हें चलता ही छोड़कर सो जाते हैं, तो सावधान हो जाएं, ऐसा करना आपके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित हो सकता है। कई शोध बताते हैं कि वे लोग जो देर रात तक टीवी या कंप्यूटर के सामने बैठे रहते हैं, उन्हें अवसाद की शिकायत अधिक होती है।
आंकड़ों पर एक नजर
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के आंकड़ों के अनुसार भारत में डिप्रेशन के मरीज तेजी से बढ़ रहे हैं। इस सर्वे के मुताबिक भारत में करीब 36 प्रतिशत लोग गंभीर डिप्रेशन से ग्रस्त हैं। मनोचिकित्सक डिप्रेशन को ऐसी बीमारी बताते हैं जो कुछ रोगियों को आत्महत्या की ओर ले जाती है।
अवसाद में भारत अव्वल
कुछ शोधों की मानें तो भारत में डिप्रेशन दसवीं सबसे सामान्य बीमारी हो चली है। कुछ सर्वे बताते हैं कि भारत में अन्य विकाशील व विकसित देशों की तुलना में डिप्रेशन के मरीज ज्यादा हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 18 देशों में करीब 90 हजार लोगों का सर्वेक्षण किया था, जिसमें उन्होंने पाया कि भारत में सबसे ज्यादा, 36 प्रतिशत लोग मेजर डिप्रेसिव एपिसोड (एमडीई) का शिकार हैं। इस सर्वेक्षण में दूसरे स्थान पर यूरोपीय देश फ्रांस आया है, जहां 32.3 प्रतिशत लोग अवसाद से ग्रस्त हैं। वहीं तीसरे स्थान पर अमेरिका आया जहां मेजर डिप्रेसिव डिसऑर्डर से ग्रस्त लोगों की संख्या 30.9 प्रतिशत पायी गयी। विश्व स्वास्थ्य संगठन के सर्वे के मुताबिक इस सूची में सबसे नीचे चीन आया, जहां सिर्फ 12 प्रतिशत लोग अवसाद के शिकार हैं।
तेजी से बदलती जीवनशैली और तकनीक पर मनुष्य की बढ़ती निर्भरता के चलते आजकल अवसाद एक सामान्य समस्या बन गया है। दफ्तर हो या घर, बच्चे हों युवा हों या बड़े, स्कूल व दफ्तर से लेकर घर तक अधिकांश लोग कंप्यूटर पर निर्भर रहते हैं। और बाकी की कसर टीवी कर ही देता है। यही नहीं दफ्तर हो या घर, कामकाजी हो या स्कूल/ कॉलेज स्टूडेंट सभी देर रात तक या तो कंप्यूटर पर काम कर करने के आदी बन चुके हैं या टीवी देखने के।
क्या कहते हैं शोध
अमेरिकी प्रांत ओहायो के यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के मनोवैज्ञानिकों की टीम ने चूहों पर किये शोध के परिणामों के आधार पर रात में जागने वालों को आगाह किया था। ‘मोलिक्युलर साइकियास्ट्री’ में प्रकाशित हुए इस शोध में इस विषय पर विस्तृत जानकारी दी गयी थी।
इस शोध में शोधकर्ताओं ने कुछ चूहों को चार हफ्तों तक अंधेरे कमरे में कंप्यूटर या टेलीविजन से निकलने वाली मद्धिम रोशनी में रखा था। इस दौरान उन्होंने पाया कि चूहों के व्यवहार अवसाद में डूबे व्यक्तियों की मनोदशा से काफी मेल खा रहे थे। वैज्ञानिकों के मुताबिक, इस शोध से उन्हें यह पता चला कि पिछले कई वर्षों में अवसाद की घटनाओं में वृद्धि में टेलीविजन और कंप्यूटर सेटों की अहम भूमिका रही है। उन्होंने यह भी बताया कि महिलाओं में ऐसे में अवसाद में जाने की आशंका पुरुषों से दोगुनी हो सकती है।
उपरोक्त शोध के ही अनुसार मद्धम रोशनी में रहने वाले चूहे सुस्त पाए गए और उन्होंने मीठा पेय पीने में भी कम रुचि दिखाई। ये दोनों ही लक्षण अवसादग्रस्त लोगों से मेल खाते हैं। अवसाद ग्रस्त लोगों की तरह ही चूहों के दिमाग के खास हिस्से में भी बदलाव और एक प्रकार के रसायन का रिसाव पाए गया था।
हालांकि इस शोध में वैज्ञानिकों ने यह भी कहा था कि अपनी आदतों में सुधार करके इस तरह की परेशानियों से बचा जा सकता है। ऐसा उन्होंने चूहों को रात की सामान्य रोशनी में रखकर प्राप्त बेहतर नतीजों के आधार पर कहा था। इसके अलावा देर रात जगने से मोटापा और स्तन कैंसर के मामलों में वृद्धि के बारे में वैज्ञानिक पहले ही आगाह कर ही चुके हैं।
वहीं दूसरी ओर अमेरिका के जरनल ऑफ एपीडिमीओलॉजी में छपी एक रिपोर्ट में भी कहा गया था कि टेलीविजन को अधिक समय देने वाली महिलाओं को अवसाद की समस्या अधिक होती है और उन्हें व्यायाम के लिए भी समय निकालना चाहिए। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि दिन में तीन घंटे से ज्यादा समय तक टीवी देखने वाली महिलाओं में अवसाद की आशंका 13 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। ऐसे में जो महिलाएं व्यायाम करती हैं, उनमें व्यायाम नहीं करने वाली महिलाओं के तुलना में अवसाद का जोखिम कम होता है। दरअसल सक्रिय रहने व व्यायाम करने से रक्त में एंडोर्फिन की मात्रा बढ़ती है। गौरतलब है कि मनुष्य के शरीर में पैदा होने वाला रसायन एंडोर्फिन, प्राकृतिक दर्द निवारक का काम करता है।
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