
आयुर्वेदिक तिब्बती उपचार एक पारंपरिक और प्राचीन विधा है, जिसमें नब्ज, चेहरे, जीभ, आंखों व सुबह के यूरिन आदि की जांच व मरीज से बातचीत के आधार पर रोग का पता लगाया जाता है और फिर उसी के आधार पर रोगी का उपचार भी किया जाता है।
आयुर्वेदिक तिब्बती उपचार एक पारंपरिक और प्राचीन विधा है, जिसमें नब्ज, चेहरे, जीभ, आंखों व सुबह के यूरिन आदि की जांच व मरीज से बातचीत के आधार पर रोग का पता लगाया जाता है और फिर उसी के आधार पर रोगी का उपचार भी किया जाता है। चलिये विस्तार से जानें आयुर्वेदिक तिब्बती उपचार की मदद से कैसे गंभीर रोग ठीक होते हैं। चलिये विस्तार से जानें आयुर्वेदिक तिब्बती उपचार क्या है और इसे कैसे किया जाता है।
सोआ-रिग्पा (मेन सी खांग) एक तिब्बत चिकित्सा पद्धति है। यह विधा भी भारतीय आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति की तरह है जिसमें उपचार के लिए जड़ी-बूटियों का प्रयोग किया जाता है। देश के विभिन्न शहरों में आयुर्वेदिक तिब्बती उपचार के 55 से अधिक उपचार केंद्र हैं।
कैसे होती है रोगों की पहचान
इस चिकित्सा पद्धति में नब्ज, चेहरे, जीभ, आंखों व उसके सुबह के पेशाब आदि की जांच के आधार पर उसके रोग का पता लगाया जाता है। इस चिकित्सा पद्धति में पेशाब की जांच की जाती है, जिसमें जांचकर्ता पेशाब को एक विशेष उपकरण से बार-बार हिलाते हैं जिससे बुलबुले बनते हैं। उन बुलबुलों के आकार के आधार पर रोग की पहचान की जाती है और उसकी गंभीरता का भी पता लगाया जाता है। इसके अलावा पेशाब की गंध व रंग आदि से भी विशेषज्ञ बीमारी के बारे में पता लगाते हैं। सोआ-रिग्पा चिकित्सा पद्धति में अधिकतर दवाओं को पहाड़ी क्षेत्र में उगने वाली जड़ी-बूटियों के अर्क से बनाया जाता है। कैंसर, डायबिटीज, हृदय रोगों और आर्थराइटिस जैसी गंभीर बीमारियों में मिनरल्स का अधिक प्रयोग किया जाता है। कुछ दवाओं में सोना-चांदी और मोतियों आदि प्राकृतिक रत्नों की भस्म भी मिलाई जाती है। इस पद्धति में दवाएं, गोलियों और सिरप के रूप में होती हैं।
जहां एक ओर आयुर्वेद में औषधीय पौधे के सभी हिस्सों को इस्तेमाल किया जाता है, इस चिकित्सा पद्धति में औषधीय पौधों से केवल अर्क निकालकर दवा बनाई जाती है। इस पद्धति में इलाज के साथ एलोपैथी, यूनानी, आयुर्वेदिक या होम्योपैथिक दवा भी खाई जा सकती हैं। इस पद्धति में परहेज कुछ गिनीचुनी बीमारियों में ही करना होता है।
चिकित्सा पद्धति का सिद्धांत
आयुर्वेद की ही तरह इस पद्धति में तीन दोष होते हैं जिन्हें लूंग, खारिसपा और बैडकन कहा जाता है। विशेषज्ञ जांच के समय इन तीनों को ध्यान में रखते हुए रोग को जड़ से खत्म करने पर जोर देते हैं और इलाज लंबा चलता है। ध्यान लगाना भी इस पद्धति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है।
इस पद्धति में शल्य चिकित्सा नहीं होती है, लेकिन कुछ खास रोगों में छोटी-मोटी सर्जरी की जा सकती है। जैसे आर्थराइटिस में घुटने में कट लगाकर दूषित खून को बाहर निकाला जाता है। एक्यूपंक्चर से भी इलाज किया जाता है।
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